कांग्रेस का अमृतसर अधिवेशन
- अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 34वां अधिवेशन अमृतसर में बुलाया गया था. पहले दिन यानि 27 दिसंबर, 1919 को मोतीलाल नेहरू अपने अध्यक्षीय भाषण में ब्रिटिश शासन की शान में कसीदे पढ़ रहे थे.
- उस दौरान जोर्जे फ्रेडेरिक (V) यूनाइटेड किंगडम के राजा और भारत के सम्राट कहे जाते थे. उनके उत्तराधिकारी प्रिंस ऑफ़ वेल्स, एडवर्ड अल्बर्ट (VIII) का 1921 में भारत दौरा प्रस्तावित था.
- अधिवेशन में मोतीलाल ने सर्वशक्तिमान भगवान से प्रार्थना करते हुए भारत की समृद्धि और संतोष के लिए एडवर्ड की बुद्धिमानी और नेतृत्व की सराहना की. हालाँकि वे राजनैतिक आज़ादी की मांग तो कर रहे थे लेकिन उन्होंने ब्रिटिश शासन की उदारता और अपनी निष्ठा का भी जिक्र किया.
ब्रिटिश संसद और जनरल डायर
- जिस ब्रिटिश शासन की मोतीलाल तारीफ़ कर रहे थे वहां की संसद डायर का गुणगान कर रही थी.
- 19 जुलाई, 1920 को एक प्रस्ताव में कहा गया, “जनरल डायर बहुत क्षमता वाले अधिकारी हैं, उससे भी ज्यादा, उन्होंने कुशलता और मानवता के गुणों से अत्यंत प्रभावित किया हैं.” (पार्लियामेंट ऑफ़ यूनाइटेड किंगडम, 19 जुलाई, 1920)
- ब्रिटेन का यह नजरिया क्रूरता, फासीवाद और तानाशाही का एक उदाहरण था. इससे भी खतरनाक और शर्मनाक था कि कांग्रेस ने इस प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं दी.
डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी
- ब्रिटिश सरकार ने 1920 में डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित की.
- नरसंहार के दिन 5000 से ज्यादा लोग वहां मौजूद थे.
- डायर के साथ 90 लोगों की फौज थी जिसमें 50 के पास राइफल्स और 40 के पास खुर्की (छोटी तलवार) थी.
- डायर ने लिखित में बताया कि जितनी भी गोलियां चलाई गयी वह कम थी. अगर उसके पास पुलिस के जवान ज्यादा होते तो जनहानि भी अधिक होती.
- वह यह तय करके आया था कि अगर उसके आदेश नहीं माने गए तो वह गोलियां चला देगा.
- बिना चेतावनी के वह लगातार 10 मिनट तक वह गोलियां चलता रहा.
मृतकों की संख्या
- एक ब्रिटिश अधिकारी जे.पी. थोमसन ने एच.डी. क्रैक को 10 अगस्त, 1919 को पत्र लिखा, “हम इस स्थिति में नहीं है जिसमें हम बता सके कि वास्तविकता में जलियांवाला बाग में कितने लोग मारे गए. जनरल डायर ने मुझे एक दिन बताया कि यह संख्या 200 से 300 के बीच हो सकती हैं. उसमें बताया कि उनके फ्रांस के अनुभव के आधार पर 6 राउंड शॉट से एक व्यक्ति को मारा जा सकता हैं. उस दिन कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गयी. उसके बाद ब्रिटिश सरकार ने डायर के अनुमान के आधार पर 291 लोगों के मारे जाने की पुष्टि कर दी. इसमें 186 हिन्दू, 39 मुस्लिम, 22 सिख और 44 अज्ञात बताये गए. इस प्रकार वहां मरने वालों की संख्या निर्धारित की गयी. (राष्ट्रीय अभिलेखागार, होम पॉलिटिकल, 23-1919)
- डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी ने तो 379 लोगों की जान और इसके तीन गुना लोग घायल होने की बात कही.
- पंडित मदन मोहन मालवीय ने जलियांवाला बाग का दौरा किया था. उन्होंने बताया कि मरने वालों की संख्या 1000 से ऊपर हैं. (राष्ट्रीय अभिलेखागार, होम पॉलिटिकल, 23-1919)
नरसंहार का राजनीतिकरण
- जलियांवाला बाग के लिए एक ट्रस्ट प्रस्तावित किया गया था. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस विधेयक को संसद के समक्ष प्रस्तुत न करके मंत्रिमंडल की मंजूरी से ही पारित करा देना चाहते थे. वे 11 मार्च, 1950 को लिखते हैं, “मैं चाहता हूँ कि इस विधेयक के ड्राफ्ट को जलियांवाला बाग मैनेजिंग कमिटी की बैठक में रखा जाए. उसके बाद, मुझे उसकी प्रति भेज दे. तब विधेयक को मंत्रिमंडल के समक्ष मंजूरी के लिए पेश किया जायेगा. जाहिर है इसे संसद के वर्तमान सेशन में नहीं रखा जा सकता, लेकिन यह मंत्रिमंडल के द्वारा पारित कराया जायेगा.” (राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 Judicial)
- इस विधेयक को नेहरू ने डॉ. बी.आर. आंबेडकर के पास भेज दिया. दरअसल यह गलत बताया गया है कि इस बिल का ड्राफ्ट आंबेडकर ने तैयार किया था. असल में इसका ड्राफ्ट कांग्रेस के ही एक सदस्य टेकचंद ने बनाया था. आंबेडकर के पास तो यह समीक्षा के लिए 24 मार्च, 1950 को भेजा गया था. कुछ मामूली सुझावों के उन्होंने इसे वापस भेज दिया. (राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 न्यायिक )
- जलियांवाला बाग मेमोरियल ट्रस्ट बिल, 1950 में नेहरू के साथ सरदार पटेल भी न्यासी थे. एक्स-ओफिसियो में पंजाब के राज्यपाल, पंजाब के मुख्यमंत्री और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष को रखा गया. इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार द्वारा पहले चार लोगों को नामांकित किया जा सकता था लेकिन अंत में यह संख्या तीन कर दी गयी. (राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 न्यायिक)
- इसके न्यासी जीवन भर के लिए पदाधिकारी बनाये गए.
- आखिरकार, संसद के समक्ष 7 दिसंबर, 1950 को यह विधेयक प्रस्तुत किया गया. तब तक सरदार बेहद अस्वस्थ हो गए थे. उनके स्थान पर राजकुमारी अमृत कौर के नाम पर विचार किया गया. बाद में नेहरू के सुझाव पर डॉ. सैफुद्दीन किचालू को न्यासी बनाया गया. (राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 न्यायिक)
निष्कर्ष : कांग्रेस ने इस पूरे मामलें में अलोकतांत्रिक रवैया अपनाया. किसी अन्य दल अथवा सामाजिक और राजनैतिक व्यक्ति से इस सन्दर्भ में चर्चा नहीं की. शुरुआत में विधेयक को संसद में न लाकर मंत्रिमंडल से ही पारित किया जाना था. बाद में नेहरू ने इसे संसद के समक्ष रखा तो इसमें सभी सदस्य कांग्रेस के ही थे. गौर करने वाली बात थी कि इसमें कांग्रेस के अध्यक्ष को भी रखा गया. यह नियम 1951 से लागू था जिसे 2018 में बदल दिया गया. अब इसमें कांग्रेस अध्यक्ष के स्थान पर लोकसभा में विपक्ष के नेता को रखा गया हैं. अगर विपक्ष में कोई दल नहीं होता तो उसी जगह विपक्ष की सबसे बड़े दल के नेता को शामिल किया जायेगा.