27 सितंबर 1951 को कांग्रेस नेतृत्व और विशेषकर पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा कैबिनेट से त्यागपत्र देने के लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर को विवश किया गया।
संसद में अम्बेडकर ने त्यागपत्र के साथ जो भाषण दिया(अम्बेडकर राइटिंग, वॉल्यूम- 14 भाग 2 पृष्ठ 1317- 1327) वह कांग्रेस के एस सी / एसटी विरोधी असली चेहरे को उजागर करता है । डॉ अम्बेडकर के भाषण के प्रमुख अंश यहाँ प्रस्तुत किये जा रहें हैं –
अपने त्यागपत्र भाषण में डॉ. अम्बेडकर ने उस पीङा को बयां किया है जो उन्होंने नेहरू के हाथों झेली-
वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य बनने पर मुझे मालूम था कि कानून मंत्रालय का प्रशासनिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है । यह भारत सरकार की नीतियों को आकार देने का अवसर नहीं दे पाएगा । जब प्रधानमंत्री ने मुझे प्रस्ताव दिया तो मैंने उन्हें स्पष्ट बता दिया था कि अपनी शिक्षा और अनुभव के आधार पर एक वकील होने के साथ मैं किसी भी प्रशासनिक विभाग को चलाने में सक्षम हूं । पुराने वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में मेरे पास श्रम और लोकनिर्माण विभाग के प्रशासनिक दायित्व रहे, जिनमें मैंने कई परियोजनाओं को प्रभावी तरीके से कार्यान्वित किया । प्रधानमंत्री सहमत हो गए और उन्होंने कहा कि वह मुझे अलग से योजना का भी दायित्व देंगे। दुर्भाग्य से योजना विभाग बहुत देरी से मिला, जिस दिन मिला मैं तब तक बाहर आ चुका था । मेरे कार्यकाल के दौरान कई बार एक मंत्री से दूसरे मंत्री को मंत्रालय दिए गए, मुझे लगता है कि उन मंत्रालयों में से भी कोई मुझे दिया जा सकता था लेकिन मुझे हमेशा इस दौड़ से बाहर रखा गया । कई मंत्रियों को दो-तीन मंत्रालय दिए गए जो उनके लिए अतिरिक्त बोझ भी बन गए थे । दूसरी ओर मैं था जो और अधिक काम चाहता था । जब कुछ दिन के लिए किसी मंत्रालय का प्रभारी मंत्री विदेश जाता था तो अस्थाई तौर पर वह कार्यभार तक देने के लिए मेरे बारे में नहीं सोचा जाता था । मुझे यह समझने में भी कठिनाई होती थी कि मंत्रियों के बीच काम का बंटवारा करने के लिए प्रधानमंत्री जिस नीति का पालन करते हैं उस का पैमाना क्या क्षमता है? क्या यह विश्वास है ? क्या यह मित्रता है ? या क्या यह लचरता है ? मुझे कभी भी कैबिनेट की प्रमुख समितियां जैसे विदेश मामलों की समिति अथवा रक्षा समिति का सदस्य नहीं चुना गया । जब आर्थिक मामलों की समिति का गठन हुआ तो प्राथमिक रूप से अर्थशास्त्र का छात्र होने के नाते मुझे आशा थी कि इस समिति का सदस्य मुझे नियुक्त किया जाएगा, लेकिन मुझे बाहर रखा गया । जब प्रधानमंत्री इंग्लैंड गए तो मुझे कैबिनेट ने इसका सदस्य चुना लेकिन जब वह वापस आए तो कैबिनेट समिति के पुनर्गठन में भी उन्होंने मुझे बाहर ही रखा । मेरे विरोध दर्ज करने के बाद मेरा नाम जोड़ा गया ।
सरकार द्वारा एस सी/ एस टी जनसंख्या की उपेक्षा
डॉ. अंबेडकर ने इस मुद्दे पर विस्तार से बोला है कि किस प्रकार नेहरू सरकार ने एससी/ एसटी जनसँख्या के हितों को ताक पर रख दिया था ।
अब मैं उस दूसरे मामले का संदर्भ देना चाहूँगा जिसने मुझे सरकार के प्रति असंतुष्ट बनाया, वह था पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों से जुडा भेदभावपूर्ण व्यवहार । मुझे इस बात का बहुत दुःख है संविधान में इन जातियों की सुरक्षा के लिए कुछ विशेष तय नहीं किया गया । यह तो राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक आयोग की संस्तुति के आधार पर सरकार को करना पड़ा । इसका संविधान पारित करते हुए हमें एक वर्ष हो गया था लेकिन सरकार ने आयोग के गठन तक के विषय में नहीं सोचा ।
मुझे विश्वास था कि प्रधानमंत्री भी इस बात से सहमत होंगे कि मैं इस विषय में कोई शिकायत नहीं करूंगा । मैं कभी भी सत्ता की राजनीति का खेल या मंत्रालय छीनने का खेल कैबिनेट के अंदर नहीं खेलूंगा । मैं सेवा में विश्वास करता हूं उस पद की सेवा जो कैबिनेट के प्रमुख के नाते प्रधानमंत्री ने मुझे दी है और जिसे करने में मैं पूरी तरह सक्षम हूं । बेशक यह मेरे लिए तब तक अमानवीय नहीं था जब तक मुझे यह महसूस न हो कि मेरे साथ गलत हो रहा था ।
1946 में मैं मंत्रालय से बाहर था । यह मेरे लिए और अनुसूचित जाति समुदाय से जुड़े प्रमुख नेताओं के लिए बहुत चिंतन का वर्ष था । अंग्रेज अनुसूचित जाति के संवैधानिक संरक्षण के वादे के बाद मुक्त थे । लेकिन अनुसूचित जाति समुदाय इस बात से बेखबर था कि संविधान सभा उस दिशा में क्या करेगी? इस दुविधा के कालखंड में मैंने अनुसूचित जाति की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की और इसे संयुक्त राष्ट्र संघ में देने का मन बना दिया लेकिन मैंने यह रिपोर्ट जमा नहीं की । मैंने यह महसूस किया कि बेहतर तो यही है कि इस मामले पर विचार के लिए संविधान सभा और देश की संसद को काम करने का एक अवसर मिलना चाहिए । संविधान में अनुसूचित जाति के लोगों की सुरक्षा के लिए बनाए गए प्रावधानों से मैं संतुष्ट नहीं था । फिर भी मैंने स्वीकार किया जो भी उन्होंने किया है ठीक होगा । इस विश्वास के साथ कि सरकार इन प्रावधानों को प्रभावी बनाने के लिए कुछ प्रभावी इच्छाशक्ति अवश्य दिखाएगी ।
आज अनुसूचित जाति की स्थिति क्या है ? जहां तक मैंने देखा है वैसी ही है जैसी पहले थी वही चला आ रहा उत्पीड़न, वही पुराने अत्याचार, वही पुराना भेदभाव जो पहले दिखाई पड़ता था । सब कुछ वही, बल्कि और बदतर हालात वाली स्थिति । मेरे पास दिल्ली व आसपास के क्षेत्रों से सैकड़ों मामले आते थे जिनमें समाज की पीड़ा होती थी । जहां उच्च जातियों के उत्पीड़न के खिलाफ पुलिस भी मामले दर्ज नहीं करती थी। तब लगता था कि अनुसूचित जाति के लोगों की पीड़ा सुनने के लिए क्या दुनिया में कोई समानांतर तंत्र बनाना पड़ेगा, जो मुझे कहीं नहीं दिखाई पड़ता था । अभी तक भी अनुसूचित जातियों को कोई राहत क्यों नहीं दी गई है ? बल्कि यदि तुलना करें तो इनसे ज्यादा सरकार मुसलमानों के प्रति संवेदना दिखा रही है । प्रधानमंत्री का सारा समय और ध्यान मुसलमानों के संरक्षण के लिए समर्पित है । मुझे कोई दिक्कत नहीं है, प्रधानमंत्री से भी नहीं । मैं तो केवल यह चाहता हूं कि भारत के मुसलमानों को जब सुरक्षा की जरूरत पड़े तो उन्हें सुरक्षा दी जाए । मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या मुसलमान अकेले हैं जिन्हें ही केवल सुरक्षा की जरूरत है । क्या अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और भारतीय ईसाइयों को सुरक्षा की जरूरत नहीं है । नेहरू जी ने इन समुदायों के लिए क्या चिंता दिखाई है ? जहां तक मुझे मालूम पड़ता है कुछ भी नहीं । जबकि असली बात यह है कि ये वो समुदाय हैं जिन पर मुसलमानों से भी ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है ।
सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों की उपेक्षा को मैं कई वर्षों से देख रहा था । एक अवसर पर मैंने एक सार्वजनिक सभा में भी अपनी भावना व्यक्त कर दी । मेरे प्रश्न पर गृहमंत्री को पूछा गया कि क्या यह आरोप सही है कि 12.50 प्रतिशत प्रतिनिधित्व के नियम से भी इस समुदाय के लोगों को लाभ नहीं पहुंच रहा है ? इस प्रश्न के जवाब में गृहमंत्री ने कहा कि मेरे द्वारा लगाए गए आरोप आधारहीन हैं । उनके इस जवाब से मैं आहत था । बाद में उनको और मुझे सूचित किया गया कि भारत सरकार के सभी विभागों को एक सर्कुलर भेजा गया है जिसमें उन्हें सरकारी सेवाओं में हाल में चयनित अनुसूचित जातियों के अभ्यर्थियों की संख्या बताने को कहा गया है । मुझे सूचित किया गया कि ज्यादातर विभागों ने जवाब में बताया कि शून्य या शून्य के आसपास । यदि मेरी सूचना सही है तो मुझे गृहमंत्री के उत्तर पर किसी प्रकार के वक्तव्य देने की जरूरत नहीं थी ।
मैंने अपने बाल्यकाल से ही स्वयं को उस अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया था, जिसमें मैं पैदा हुआ था । मेरे जीवन में भी कई रोड़े आये । यदि मैं केवल अपने ही स्वार्थ पर केन्द्रित रहता तो मैं जो चाहता शायद पा भी लेता । यदि मैं कांग्रेस पार्टी से जुड़ा तो मैं उस संगठन में शीर्ष पर पहुँच सकता था । लेकिन जैसा कि मैंने बताया मैंने स्वयं को अनुसूचित जाति के उत्थान के लिए समर्पित किया था । और मैं उस रास्ते पर चलना ज्यादा पसंद करता, यदि आप अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास करते हैं तो उसके लिए संकुचित दिमाग के साथ चलना भी बेहतर है। इसलिए आप अच्छी तरह से कल्पना कर सकते हैं कि अनुसूचित जातियों के कल्याण की अनदेखी करने से मुझे कितनी पीड़ा हुई होगी ।
नेहरू के अलोकतांत्रिक तरीके
कैबिनेट, पहले से आए समितियों के निर्णयों की रिकॉर्डिंग और पंजीकरण मात्र का कार्यालय बन चुकी थी । जैसा कि मैंने पहले कहा कि कैबिनेट अब समितियों के द्वारा ही काम करती है । यहां एक रक्षा समिति है एक विदेश समिति है । रक्षा से जुड़े हुए सभी महत्वपूर्ण मामले रक्षा समिति द्वारा निपटाए जाते हैं । कैबिनेट के वही सदस्य उनके द्वारा नियुक्त किए जाते हैं । मैं इन समितियों में से किसी का भी सदस्य नहीं था । वे पर्दे के पीछे से काम करते हैं । अन्य लोग जो सदस्य नहीं होते हैं उन्हें नीति को आकार देने का अवसर दिए बिना संयुक्त जिम्मेदारी लेनी होती है, यह एक असंभव स्थिति है ।
इस्लाम पर डॉ. भीमराव अंबेडकर
कुछ महत्वपूर्ण बिंदु :-
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में मुस्लिम आक्रांता हिंदुओं के खिलाफ घृणा का राग गाते हुए आए थे । उन्होंने न केवल घृणा ही फैलाई बल्कि वापस जाते हुए हिंदू मंदिर भी जलाए । उनकी नजर में यह एक नेक काम था और उनके लिए तो इसका परिणाम भी नकारात्मक नहीं था । उन्होंने एक सकारात्मक कार्य किया जिसे उन्होंने इस्लाम के बीज बोने का नाम दिया । इस पौधे का विकास बखूबी हुआ यह केवल रोपा गया पौधा नहीं था बल्कि यह एक बड़ा ओक का पेड़ बन गया। (डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज, वॉल्यूम 8 पृष्ठ 64- 65)
अजमेर में चढ़ाई के दौरान मोहम्मद गौरी ने मंदिरों के स्तंभ और नींव तोड़कर वहां मस्जिदें बना दीं, वहां इस्लाम के कायदे कानून वाले कॉलेज और प्रतीक खड़े कर दिए । कहा जाता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1000 से अधिक मंदिर तोड़े और उसके बाद उनकी नींव पर ही मस्जिदें खड़ी कर दीं । वहीं लेखक बताते हैं कि उसने दिल्ली में जामा मस्जिद बनाई और इसमें वह पत्थर और सोना लगाया जो मंदिर तुड़वाकर प्राप्त किया था । फिर उन पर कुरान की आयतें लिपिबद्ध करवा दीं । इस भयावह कारनामे की चर्चा और प्रमाणों जो अभिलेखों लिपि का मिलान बताता है कि दिल्ली की मस्जिद के निर्माण में 27 मंदिरों की सामग्री होने का प्रमाण हैं । (पृष्ठ- 59 – 60)
शाहजहां की सल्तनत में भी हमें हिंदू मंदिरों के विनाश का वर्णन मिलता है । ‘बादशाहनामा’ में हिंदुओं के द्वारा मंदिरों के पुनर्निर्माण करने का उल्लेख है । “जहांपनाह ने आदेश दिया है कि बनारस और इसके आसपास के क्षेत्रों में प्रत्येक जगह जिन मंदिरों के निर्माण का कार्य चल रहा है उसका ब्यौरा रखा जाए । इलाहाबाद रियासत से रिपोर्ट दी गई कि बनारस जिले में 76 मंदिर नष्ट करवाए गए थे । (पृष्ठ संख्या 59- 60)
इस्लाम: लोकतंत्र विरोधी
मुस्लिम राजनीति कितनी विकृत है यह भारतीय राज्यों में हुए कुल राजनीतिक सुधारों और मुस्लिम नेताओं के तौर तरीकों से ही देखा जा सकता है । मुसलमानों की महत्वपूर्ण चिंता लोकतंत्र नहीं है । महत्वपूर्ण चिंता यह है कि बहुमत शासन वाला लोकतंत्र हिंदुओं के खिलाफ मुसलमानों के संघर्ष को किस प्रकार प्रभावित करता है ? क्या यह उनको शक्तिशाली बनाएगा या कमजोर ? यदि लोकतंत्र उन्हें कमजोर करेगा तो उनके पास लोकतंत्र नहीं रहेगा । मुस्लिम राज्य सड़ी गली व्यवस्था ज्यादा पसंद करेंगे बनिस्पत एक अच्छे तंत्र की क्योंकि वे भी हिंदुओं के मुद्दों में ही ज्यादा रुचि रखते हैं । मुस्लिम समुदाय में जो राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता आई है उसका एक और एकमात्र कारण है मुसलमान सोचते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक समान संघर्ष करना चाहिए । हिंदू मुसलमानों के ऊपर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं और मुसलमान फिर से राज करने वाले समुदाय की अपनी ऐतिहासिक स्थिति को देखना चाहते हैं । तब इस संघर्ष में मजबूत ही जीतेगा, और अपनी शक्ति बढाएगा । वे ऐसी किसी भी चीज के बारे में नहीं सोचेंगे जो उनकी पद प्रतिष्ठा में कोई कमी लाने वाला हो । (पृष्ठ संख्या 236- 237)
कुरान और संविधान में संघर्ष की स्थिति में कानून बेमानी
इन अध्यायों में डॉ. अंबेडकर ने उन कारणों की चर्चा की है जिनके कारण मुसलमानों का उग्र व्यवहार और राजनैतिक आक्रामकता को बढ़ावा मिलता है । “मुसलमानों का दिमाग किस तरह काम करता है और किन कारणों से यह प्रभावित होता है यह तब स्पष्ट होगा जब हम इस्लाम के उन बुनियादी सिद्धांतों को जो मुस्लिम राजनीति पर हावी हैं और मुसलमानों द्वारा भारतीय राजनीति में पैदा किए गए मसलों को भी ध्यानपूर्वक देखेंगे। अन्य सभी सिद्धांतों और उसूलों के साथ इस्लाम का यह सबसे बड़ा उसूल है कि यदि कोई देश मुस्लिम शासन के अधीन नहीं है, जहां कहीं भी यदि चाहे मुस्लिम कानून और उस सरजमीं के कानून के बीच संघर्ष हो तो मुसलमानों को जमीन या देश के कानून की खिलाफत कर अपने मजहब अर्थात मुस्लिम कानून का पालन करना चाहिए। (बाबा साहेब …….पृष्ठ संख्या 292)
भारतीय राष्ट्रवाद के लिए संभावित खतरा
क्षेत्रीय हिन्दु और अलगाववादी मुसलमान केंद्र के खिलाफ हो रहे हैं । ऐसा समय आ सकता है जब भारत में जो हिंदू केंद्र सरकार के सबसे मजबूत समर्थक हैं, वित्तीय आकांक्षाओं के लिए राष्ट्रवादी स्वर मुखर कर सकते हैं । इसलिए यह भी संभव है कि किसी दिन मुसलमान मजहबी आकांक्षा के लिए और हिंदू वित्तीय आवश्यकताओं के लिए हाथ मिलाकर केंद्र सरकार को उखाड़ फेंक दें । यदि यह नए संविधान की नींव रखने के बाद होता है तो यह बहुत बड़ी आपदा सिद्ध होगा । इसके प्रभाव से न केवल भारत की एकता को ही खतरा है बल्कि इसके बाद हिंदू एकता को बचाना संभव नहीं हो पाएगा । (द सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ डॉ. बी. आर. अंबेडकर, wordpress.com 1606- 1607)
डॉ अंबेडकर ने यह सन्दर्भ भी दिया है कि यदि एकीकृत भारत में मुसलमान पुराने ढर्रे पर ही चलते रहे, तो यह भारतीय राष्ट्रवाद के लिए बड़ा संभावित खतरा बन जाएगा ।
इस्लाम एक क्लोज कॉर्पोरेशन है और इसकी विशेषता ही यह है कि मुस्लिम और गैर मुस्लिम के बीच वास्तविक भेद करता है । इस्लाम का बंधुत्व मानवता का सार्वभौम बंधुत्व नहीं है । यह बंधुत्व केवल मुसलमान का मुसलमान के प्रति है । दूसरे शब्दों में इस्लाम कभी एक सच्चे मुसलमान को ऐसी अनुमति नहीं देगा कि आप भारत को अपनी मातृभूमि मानो और किसी हिंदू को अपना आत्मीय बंधु । (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया, पृष्ठ- 325)
मुसलमानों में एक और उन्माद का दुर्गुण है । जो कैनन लॉ या जिहाद के नाम से प्रचलित है । एक मुसलमान शासक के लिए जरूरी है कि जब तक पूरी दुनिया में इस्लाम की सत्ता न फैल जाए तब तक चैन से न बैठे । इस तरह पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंटी है दर- उल-इस्लाम (इस्लाम के अधीन) और दर-उल-हर्ब (युद्ध के मुहाने पर) । चाहे तो सारे देश एक श्रेणी के अधीन आयें अथवा अन्य श्रेणी में । तकनीकी तौर पर यह मुस्लिम शासकों का कर्तव्य है कि कौन ऐसा करने में सक्षम है । जो दर-उल- हर्ब को दर उल इस्लाम में परिवर्तित कर दे । भारत में मुसलमान हिजरत में रुचि लेते हैं तो वे जिहाद का हिस्सा बनने से भी हिचकेंगे नहीं । (डॉ. बाबासाहेब राइटिंग एंड स्पीचेज, पृष्ठ- 298)
इस्लाम में महिलाएं
तलाक के मामले में पतियों को जो मनमानी करने की छूट दी गई है, वह उस सुरक्षा के मायने को ध्वस्त कर देती है जो एक महिला के लिए पूर्ण स्वतंत्र और खुशहाल जीवन की बुनियादी जरूरत है । जीवन के लिए ऐसी असुरक्षा जिसे कई बार मुस्लिम महिलाएं बयां कर चुकी हैं । पतियों को जिस प्रकार की मनमानी का अधिकार मुस्लिम कानून देते हैं, वह अव्याहरिक व् अमानवीय ही कहा जाएगा । (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया 1945 संस्करण / थाकेर एंड कंपनी लि., पृष्ठ 217)
लेकिन यह भी भुला दिया जाता है कि चार वैध पत्नियों के अतिरिक्त मुस्लिम कानून किसी मुसलमान को उसकी महिला गुलाम के साथ रहने की भी अनुमति देता है । महिला गुलाम की संख्या के विषय में कुछ नहीं कहा गया है । वे उनको बांट दी जाती हैं बिना किसी रोक के, और विवाह करने के आश्वासन के भी । सबसे बड़ी और कई बीमारियों की जड़ बहुविवाह और बिना ब्याह साथ रहने की बुराई पर एक भी शब्द व्यक्त नहीं किया गया है, जो कि मुस्लिम महिला के कष्ट का सबसे बड़ा कारण है । यह भी सच है कि क्योंकि बहुविवाह और बिन ब्याह साथ रहने का प्रचलन है जिस कारण इसे मुसलमानों ने आम व्यवहार में चलाया । महिलाओं के लिए यह किसी नर्क से कम नहीं था और पुरुषों ने इसे अपना विशेष अधिकार मानते हुए अपनी पत्नियों को गाली गलौज करने, प्रताड़ित और दुखी करने का बहाना पा लिया । मिस्टर जॉन जे पूल एनीमी ऑफ इस्लाम ओब्जरबर्स (पाकिस्तान…….. पृष्ठ 217)
गुलामी के इस मामले में कुरान मानवता की दुश्मन है और हमेशा की तरह महिलाएं इसकी सबसे बड़ी भुक्तभोगी हैं । (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ़ इंडिया संस्करण 1945, थाकेर एंड कम्पनी लिमिटेड। पृष्ठ 218)
· महिलाओं से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती कि वे अपने कमरों से बाहर आँगन या बगीचे में घूमने जाएं । उनके कमरे घर के पिछवाड़े की तरफ रखे जाते हैं । उन सभी को चाहे वो जवान हों या वृद्धा एक ही कमरे में ठूंस दिया जाता है । उनकी उपस्थिति में पुरुष नौकर से भी काम नहीं लिया जाता ।
एक महिला को केवल अपने बेटे, भाई, पिता चाचा और पति अथवा अन्य नजदीकी रिश्तेदार जिस पर भरोसा किया जा सके, को ही देखने का अधिकार है। वह प्रार्थना के लिए मस्जिद में भी नहीं जा सकती और यदि उसे जाना भी पड़े तो बुर्का पहनकर जाना पड़ेगा। भारत की गलियों में टहलती हुई बुर्के वाली महिलाएं सबसे घृणित दृष्टि की गवाह हैं। (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ़ इंडिया संस्करण 1945, थाकेर एंड कम्पनी लिमिटेड। पृष्ठ 220-221)
· हमेशा तनहाई और अकेले में रहने के कारण मुस्लिम महिलाओं की शारीरिक स्थिति बेहद दुखदाई हो जाती है। वे मुख्य तौर पर अनीमिया, टीवी, मसूड़ों में घाव आदि बीमारियों से पीड़ित हो जाती हैं। कमर झुकने, हड्डियां कमजोर होने, हाथ पैर कड़े होने, कूल्हों और जोड़ों तथा हड्डियों में लगातार दर्द रहने से उनको शारीरिक पीड़ा से मुक्ति नहीं मिलती। उनके दिल में घबराहट सबसे ज्यादा होती है। शारीरिक कमजोरियों का परिणाम यह होता है कि ज्यादातर की प्रसव के समय मौत हो जाती है। पर्दा मुस्लिम महिलाओं को मानसिक और नैतिक विकास से वंचित कर देता है।
· मुस्लिम महिलाएं अन्य समुदाय की अपनी बहनों से पीछे रह जाती हैं क्योंकि वे घर से बाहर किसी गतिविधि का हिस्सा नहीं बन पातीं और एक गुलाम मानसिकता व हीनता का अनुभव कर स्वयं ही घुटती रहती हैं। उनकी ज्ञान पाने की इच्छा नहीं होती है क्योंकि उन्हें सिखाया जाता है कि घर से बाहर चाहरदीवारी के उन्हें किसी भी चीज में रुचि नहीं लेनी है।
· मुस्लिम महिला संसार की सबसे बड़ी असहाय महिला मानी जाती है। मिश्र के एक मुस्लिम नेता के अनुसार “इस्लाम ने उस पर अपनी हीनता की मुहर थोप रखी है। और मजहब के नाम पर उस पर सामाजिक रूढ़ियों की बंदिश लगा रखी है जिस कारण वह अपने व्यक्तित्व के विकास और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए कोई कोशिश नहीं कर पाती। ( पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ़ इंडिया संस्करण 1945, थाकेर एंड कम्पनी लिमिटेड। पृष्ठ 216)
मुसलमानों द्वारा बलात्कार (अपराध) के कारण
· महिलाओं से पुरुषों के अलगाव के चलते मुस्लिम पुरुषों की मानसिकता पर गलत प्रभाव पड़ता है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि एक सामाजिक व्यवस्था में जहां स्त्री व पुरुष में लिंगभेद मानने के कारण आपसी संवाद और मिलने तक की मनाही हो वहां विपरीत लिंग के प्रति गलत धारणा व यौन विकृति की संभावना ज्यादा बढ़ती है।
पर्दे की इस बुराई से भारत में केवल मुस्लिम समुदाय ही नहीं हिन्दुओं में भी बहुत बुराइयां पैदा हुई हैं, इसके कारण हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति अलगाव बढ़ा है और यह आज भी भारत में सार्वजनिक जीवन में दिखाई देता है।
हिंदुओं को तब सही माना जाना चाहिए जब वे कहते हैं कि मुसलमानों के बीच सामाजिक संबंध बनाना असंभव है। क्योंकि संबंध का मतलब है एक ओर महिला तथा दूसरी ओर पुरुष इन दोनों के बीच संबंध हो। यह डॉ. अम्बेडकर द्वारा दिया गया मजेदार उदाहरण है जो इसे आगे बढ़ाता है कि जब भारतीयों को यूरोपीय लोगों से शिकायत रहती थी कि वे भारतीयों को अपने क्लब में क्यों नहीं आने देते तो वे अपने बचाव में सीधे कहते थे- ‘हम अपनी महिलाओं को क्लब में लाते हैं, यदि आप अपनी महिलाओं को क्लब में लाने के लिए सहमत हैं तो आप प्रवेश कर सकते हैं। हम आपके साथ अपनी महिलाओं को एक्सपोज नहीं कर सकते। यदि आप अपनी महिलाओं को हमारे साथ आने से मना करते हैं, पहले फिफ्टी-फिफ्टी के लिए तैयार होइए फिर हमारे क्लब में घुसने की सोचिए. (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया संस्करण -194, थाकेर एंड कंपनी लिमिटेड, पृष्ठ 222)
इस्लाम ने किया बौद्ध धर्म का विध्वंस
मुसलमान आक्रांताओं ने बौद्ध अर्चकों व भिक्षुओं में कत्लेआम का अभियान चलाया। मुसलमानों की इस खूनी कुल्हाड़ी ने बौद्ध धर्म की जड़ पर प्रहार किया। बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करके इस्लाम ने बौद्ध धर्म को ही मार दिया। भारत में बौद्ध धर्म पर पड़ने वाली यह बहुत बड़ी आपदा थी।
(डॉ. भीमराव अंबेडकर, “द डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ़ बुद्धिज़्म”)
- मुसलमान आक्रमणकारियों ने नालंदा, विक्रमशिला, जगदाला, औदान्त्पुरी आदि कई बौद्ध विश्वविद्यालयों को खत्म कर दिया। देशभर में जिन शिक्षण संस्थानों और बौद्ध मठों में बौद्ध धर्म का अध्ययन-अध्यापन हो रहा था उन्हें कट्टरपंथी हमलावरों ने ढहा दिया। हजारों की संख्या में बौद्ध भिक्षु अपनी जान बचाने के लिए नेपाल, तिब्बत और भारत से बाहर कई देशों में भाग गए। बड़ी संख्या में वे मुसलमान सैनिकों व सेनापतियों द्वारा मारे गए। बौद्ध अर्चकों की हत्या मुस्लिम आक्रान्ताओं की तलवार से इस प्रकार हुई, इसे मुस्लिम इतिहासकारों ने वर्णित किया है।
(डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर राइजिंग एंड स्पीचेज वॉल्यूम-3, महाराष्ट्र सरकार 1987, पृष्ठ 232-33 विसेंट स्मिथ के वक्तव्य के साथ)
- जब आप इस बात को स्वीकारते हैं कि इस्लाम का विस्तार पूरे क्षेत्र में इरान से निंजिया था। भारत सहित _कजाकिस्तान से मलेशिया तक पहुंचा तो इन सभी व्यापक क्षेत्रों में प्रचलित व विद्यमान बौद्ध धर्म कहां गुम हुआ यह भी जानना जरूरी है।
आपको आश्चर्य होगा कि किस प्रकार प्रोफेसर थापर ने कजाकिस्तान डायलॉग के तहत इसकी चर्चा की है।
और तो और मुग़ल बादशाह अकबर जिसने अपने दरबार में कई धर्मो के प्रतिनिधियों को चर्चा के लिए बुलाया, किसी बौद्ध प्रतिनिधि को नहीं बुलाया। सीधी बात है इसलिए आमंत्रित नहीं किया क्योंकि उस समय भारत में बौद्ध धर्म अस्तित्व में नहीं था। (कोयनराड इलस्ट(२००२), हू इज अ हिन्दू? हिन्दू रिवाइवलिस्ट व्यूज ऑफ एनिमिज्म, बुद्धिज़्म, सिक्खिज्म एंड अदर ऑफ शूट्स ऑफ हिंदूइज्म)
इस्लाम:सामाजिक सुधारों के खिलाफ
भारत के मुसलमानों के बीच सामाजिक सुधार के लिए कोई ऐसा उपयुक्त संगठित आन्दोलन नहीं है जो उनकी विसंगतियों को दूर करने का ठोस मानक बन सके। 1930 में जब केन्द्रीय असेम्बली में बाल विवाह कानून लाया गया तो मुसलमानों ने इसका विरोध किया। इसमें विवाह के लिए लड़की की आयु बढाकर 14 वर्ष और लड़के की 18 वर्ष करने का विचार था। उन्होंने विरोध में यह तर्क दिया कि यह हमारे शरीयत कानून के खिलाफ है। न केवल उन्होंने इस कानून का हर स्तर पर विरोध किया बल्कि जब यह कानूनी रूप से लागू हो गया तो उन्होंने इस अधिनियम के खिलाफ अवज्ञा आन्दोलन अभियान शुरू कर दिया।
पाकिस्तान बनने पर
जब बंटवारा हुआ तो मैंने महसूस किया कि अब भगवान ने भारत को अभिशाप से मुक्त कर दिया है और भारत अब महान व् समृद्ध होगा। (डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर, राइटिंग एंड स्पीचेज वॉल्यूम-1, पृष्ठ 146)
प्रत्येक हिन्दू के मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि पाकिस्तान बनने के बाद हिन्दुस्थान से साम्प्रदायिकता का मामला हटेगा या नहीं, यह एक जायज प्रश्न था और इस पर विचार किया जाना जरूरी था। यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान के बन जाने से हिंदुस्थान साम्प्रदायिक प्रश्न से मुक्त नहीं हो पाया। पाकिस्तान की सीमाओं की पुनर्रचना कर भले ही इसे सजातीय राज्य बना दिया गया हो लेकिन भारत को तो एक संयुक्त राज्य ही बना रहना चाहिए। हिंदुस्थान में मुसलमान सभी जगह बिखरे हुए हैं, इसलिए वे ज्यादातर कस्बों में एकत्रित होते हैं। इसलिए इनकी सीमाओं की पुनर्रचना और सजातीयता के आधार पर निर्धारण सरल नहीं है। हिंदुस्थान को सजातीय बनाने का एक ही रास्ता है कि जनसंख्या की अदला-बदली सुनिश्चित हो, जब तक यह नहीं किया जाता तब तक यह स्वीकारना पडेगा कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी, बहुसंख्यक समस्या बनी रहेगी। हिंदुस्थान में अल्पसंख्यक पहले की तरह ही बचे रहेंगें और हिंदुस्थान की राजनीति में हमेशा बाधाएं पैदा करते रहेंगे। (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया संस्करण 1945, थाकेर एंड क., पृष्ठ-104)
दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु जिसे भारतीयों को अवश्य ध्यान में लाना चाहिए वह यह कि पाकिस्तान के मसले को संविधान की नींव डालने से पहले स्पष्ट करना चाहिए। यदि हिंदुस्थान के लिए केन्द्रीय सरकार में संवैधानिक ढाँचे की रचना करनी है तो वह हिंदुस्थान और पाकिस्तान के लिए बनाई जाने वाली एक केन्द्रीय सरकार से अलग होगा। यदि ऐसा होता तो बंटवारे के निर्णय को आगे बढ़ाना भी आसान नही होता। जो कोई भी योजना बनती वह सहमति से बनाई जाती अथवा कुछ तय किया जाता। यह भी एक बड़ा मजाक है कि पाकिस्तान के जन्म की मांग को ही जमींदोज कर दिया जाता, तो वह दुबारा से सिर नहीं उठा सकेगा। मैं तो इस बात पर जोर दूंगा कि पाकिस्तान की मांग को दफ़न करने से बेहतर होगा पाकिस्तान के भूत को दफ़न करना।
भारत सरकार की रचना के सन्दर्भ में पाकिस्तानपरस्त जो विचारधारा हैं उसके अनुसार तो पाकिस्तान का भूत भविष्य में भी भारत के लिए नकारात्मक व खतरे की छाया ही बयाँ करता रहेगा। इसके लिए किसी भी प्रकार के अंशकालिक अथवा समयबद्ध कार्यक्रम की आवश्यकता नहीं बल्कि भविष्य को देखते हुए स्थायी समाधान की जरूरत है। ऐसा करने पर यही होगा कि हम बीमारी को ख़त्म करने के बजाय उसके लक्षणों का ही उपचार कर रहे हैं। लेकिन जैसा ऐसे मामलों में अक्सर होता है कि बीमारी बढती हुई अपना प्रभाव और व्याप्ति बढाकर घातक स्थिति में पहुँच जाती है, ऐसा नहीं होना चाहिए।
मुसलमान ऐसा महसूस करते हैं कि पूरे भारत के लिए एक केंद्र सरकार स्वीकार कर मुस्लिम प्रांतीय सरकारों को हिन्दू केंद्र सरकार के अधीन करने के लिए सहमति बनाई जाए और मुस्लिम प्रांतीय सरकारें बनाकर हिन्दू केंद्र सरकार से लाभ अर्जित किया जाए। इससे बचने का मुस्लिम तरीका यही था कि हिंदू केंद्र के उत्पीडन के बहाने भारत में सरकार बनाए जाने का प्रस्ताव चर्चा में ही न आए।
- मुस्लिम कानून के तहत हिंदुओं की वैधानिक स्थिति संबंधित प्रश्न उठाते हुए सुल्तान अलाउद्दीन ने जब जानना चाहा तो काजी ने कहा- ‘उन्हें श्रद्धांजलि दाता कहेंगे, यदि अधिकारी उनके मुंह में कीचड़ डालेगा तो उन्हें अपना मुंह जरूर खोलना होगा और चौड़ा करके इसे लेना होगा। धम्मी नामक इस प्रक्रिया में हिंदुओं के मुंह में कीचड़ फेंकना एक बड़ा नेक काम है। हिंदू को तहखाने में रखना एक मजहबी कर्तव्य है क्योंकि वे पैगंबर के सबसे कट्टर दुश्मन हैं और हमें पैगंबर ने ही आदेश दिया है कि उन्हें तोड़ो, लूटो और बंदी बनाओ- ‘उन्हें इस्लाम में मतांतरित (कन्वर्ट) करो अथवा मार डालो अथवा उन्हें गुलाम बनाओ और उनकी धन संपत्ति लूट लो।’
(डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर राइटिंग एंड स्पीचेज वॉल्यूम-8, पृष्ठ- 63)